माय हिंडी इज रियली बैड
अक्टूबर 1, 2008
चंद रोज पहले मुझे अपने प्रातःकालीन अखबार (हिन्दुस्तान, 22 सित., पृष्ठ 16) में एक रोचक किंतु पीड़ाजनक समाचार पढ़ने को मिला । उसका शीर्षक था ‘सारी माय हिंडी इज रियली बैड… !’ । समाचार की विषय-सामग्री है बालीवुड में हिंदी की दुर्दशा । अमिताभ पाराशर नाम के संवाददाता बताते हैं कि हिन्दी सिनेमा के अभिनेता-अभिनेत्रियां हिन्दी फिल्मों के ‘डायलाग’ रोमन लिपि में लिखवाते हैं और शूटिंग के दौरान उनको रटे-रटाये तरीके से बोल देते हैं । निःसंदेह उनकी रोजी-रोटी हिन्दी पर टिकी है, किंतु उनको हिन्दी में डायलागों से अधिक कोई रुचि नहीं रहती है, लगाव का तो प्रश्न ही नहीं ।
(अखबार की कतरन की स्कैंड प्रति my-hindi-is-bad देखें ।) मैं हालिया वर्षों में हिन्दी को लेकर अधिक संजीदा हो चुका हूं और कदाचित् उन बातों के प्रति मेरा ध्यान तुरंत चला जाता है, जिनकी अधिकतर लोगों द्वारा सहज रूप में अनदेखी हो जाती है । मैंने बड़े गौर से इस पर ध्यान दिया है कि फिल्मोद्योग में एक नौजवान अभिनेता हैं जिनको लगता है हिन्दी आती ही नहीं । (कौन हैं वे आप अंदाजा लगा लीजियेगा ।) फिल्म जगत् में सर्वाधिक चर्चित उन्हीं का परिवार है । उनके पिता आज भी सर्वश्रेष्ठ कलाकार माने जाते हैं और उनके दादा अपने समय में हिन्दी के विख्यात कवि थे । उम्मींद की जा सकती थी कि हिन्दी के प्रति तो उनका विशेष लगाव होना चाहिए था । पर बात ठीक उसके उलट है ।
अखबार की वह खबर कितनी सही है मैं कह नहीं सकता । आम तौर पर हर खबर को आजकल समाचार माध्यम बढ़ा-चढ़ाकर, मिर्च-मसाले के साथ, परोसते हैं । अतः मैं नहीं समझता कि स्थिति वस्तुतः उतनी दयनीय एवं निराशाप्रद होगी जितनी कही गयी है । फिर भी यह तो मुझे मानना ही पड़ता है कि हिन्दी सिनेजगत् में स्थिति अच्छी नहीं है । मैंने यह तो देखा ही है कि वहां के ‘स्टार’ आम तौर पर हिन्दी बोलने से परहेज रखते हैं । उनकी हिन्दी क्या सचमुच में कमजोर रहती है, इतनी कमजोर कि वे आम वार्तालाप ही न कर सकें, मैं कह नहीं सकता । शायद नहीं । मैं तो समझता हूं कि जिस माहौल में वे रहते हैं उसमें वे हिन्दी, टूटी-फूटी ही सही, जाने-अनजाने सीख ही जायेंगे । मेरा सोचना है कि वे आम हिन्दीभाषी से श्रेष्ठतर तथा उनसे अलग दिखने की तीव्र लालसा से प्रेरित होकर ही मौजूदा रवैया अपनाये हुए हैं ।
वास्तव में देखा जाये तो इस प्रकार का व्यवहार फिल्मी कलाकारों तक ही सीमित नहीं है, वल्कि हर क्षेत्र में ऐसा देखने को मिलता है, खास तौर पर उनके मामले में जो ‘सेलेब्रिटी’ के स्तर पर स्थापित हो चुके हैं, चाहे वे फिल्मोद्योग से जुड़े हों या खेलजगत् से या प्रशासन से । यह आम बात है कि जब कभी कोई हिन्दी में इन लोगों का साक्षात्कार लेता है तो वे या तो सीधे अंग्रेजी में ही जवाब देते हैं, अथवा वार्तालाप के समय देर-सबेर अंग्रेजी पर उतर आते हैं । साफ-सुथरी हिन्दी (हिंग्लिश नहीं) तो किसी के भी मुंह से सुनने को नहीं मिलती । मैंने तो कभी-कभी यह देखा है कि बीबीसी रेडियो पर साक्षात्कार प्रस्तुत करने वाले को अपने अतिथि से बारबार कहना पड़ता है कि वे कृपया हिन्दी में बोलें, क्योंकि उनका कार्यक्रम आम हिन्दीभाषियों के लिए है, जो गांव-देहातों के भी हो सकते हैं ।
अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण मानी जा चुकी है । विश्व के सभी प्रमुख देशों के नागरिकों लिए यह एक उपयोगी भाषा है, जिसके माध्यम से वे अंतरराष्ट्रीय प्रकृति के कार्य संपन्न कर सकते हैं, विविध विषयों की जानकारी जुटा सकते हैं, पर्यटन जैसे कार्य में उसकी मदद ले सकते हैं या इसी प्रकार के कुछेक कार्य संपन्न कर सकते हैं । इससे आगे अंग्रेजी की कोई अहमियत उनके लिए नहीं । उनके लिए अपने परिवार में, पास-पड़ोस में, परिचितों-अपरिचितों के बीच उनकी अपनी जनभाषा ही महत्त्व रखती है ।
परंतु अपने देश में अंग्रेजी एक भाषा ही नहीं, बल्कि उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है । हमारे समाज में यह अभिजात वर्ग की भाषा है, वह श्रेष्ठता की निशानी है और सामाजिक विभाजन का आधार है । आप माने या न माने अंग्रेजी ने एक नये ही प्रकार की जातीयता को जन्म दिया है । एक तरफ वे हैं जिनकी प्राथमिकता हर अवसर पर अंग्रेजी रहती है, जो अपने आपको अंग्रेजी के आधार पर बेचारे शेष देशवासियों से अलग कर सकते हैं और आगे बढ़ने के लिए समस्त अवसरों पर जिनका अधिकार है । अंग्रेजी आज भी जनभाषा नहीं है, यह एक सामाजिक वर्ग की भाषा है, जो सामान्य जनसमुदाय के बीच रहते हुए भी उसके अलग है । ये सभी बातें हैं जो उजागर होती हैं समाचार में उल्लिखित लोगों के भाषायी रवैये में । – योगेन्द्र
अक्टूबर 2, 2008 at 8:18 अपराह्न
mai aapki baat ewam tark se sahmat hun
अक्टूबर 2, 2008 at 8:19 अपराह्न
सही कहा आप ने यह लेख पढ़कर मेरी भी यही दशा हुई थी, हिन्दी की रोटी खाएँगे पर हिन्दी नहीं बोलेंगे, यदि बोलेंगे तो हिंगलिश होगी. शुद्धः बोलने में तो अपमान हो जाता है.
ऐसा जागरूकता भरा लेख आप से फ़िर चाहूंगा.
अक्टूबर 2, 2008 at 10:55 अपराह्न
जानकारी से दुख पहुंचा। आज के अभिभावक बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं , ताकि बच्चों की अंग्रेजी मजबूत रहे ,पर साथ ही साथ उन्हें उनकी हिन्दी को मजबूत बनाने के लिए भी कोशिश करनी चाहिए , जिसमें लापरवाही बरती जाती है। इससे बच्चे हिन्दी की उपेक्षा करते हैं।
अक्टूबर 2, 2008 at 11:33 अपराह्न
सुंदर आलेख आपका स्वागत है
अक्टूबर 3, 2008 at 1:19 अपराह्न
मै आपके विचारों से सहमत हू। मराठी को बचाने के लिए तो राज ठाकरे कटिबद्ध है…लेकिन हिन्दी को बचाने के लिए कौनसा नेता या अभिनेता आगे आ रहा है?
अक्टूबर 3, 2008 at 5:28 अपराह्न
सचमुच दुर्भाग्य की बात है, और ऐसे कलाकारों को लोग अपना आद्रश मानते हैं।
अक्टूबर 5, 2008 at 9:32 अपराह्न
आपके रचनात्मक ऊर्जा के हम क़ायल हुए.आपका यह ब्लॉग सफलता की नई-नई ऊँचाइयों को छुए. यह ब्लॉग प्रेरणादायी और लोकप्रिय बने.
समाज और देश के नव-निर्माण में हम सब का एकाधंश भी शामिल हो जाए.
यही कामना है.
कभी फुर्सत मिले तो मेरे भी दिन-रात देख लें.
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